पुर्तगालियों को भारत तक पहुंचने के लिए समुद्री मार्ग खोजने की क्या जरूरत आ पड़ी

आइए आज जानते हैं कि आखिर पुर्तगालियों को भारत तक पहुंचने के लिए समुद्री मार्ग खोजने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? आखिर वास्को-डी-गामा को समुद्री मार्ग से भारत की ख़ोज करने के लिए क्यों भेजा गया? 

भारत के मसालों और कपड़ों के व्यापार के लिए 15वीं सदी में भारत से यूरोप तक लैंड रूट का इस्तेमाल होता था. 

लेकिन 1453 में एक ऐसी घटना घटी जिसने दुनिया को एक नया इतिहास दिया. 1453 में कांस्टेंटिनोपल यानी कुस्तुन्तुनिया यानी आज के इंस्तांबुल पर तुर्की के उस्मानियों का कब्जा हो गया. उस्मानी सुल्तान मेहमद द्वितीय ने यूरोप की बुनियाद हिला दी थी. उस्मानी लोग भारत से आने वाले माल पर भयंकर टैक्स लेने लगे. इसके चलते यूरोप वालों को ये सामान महंगा पड़ने लगा और आख़िरकार उस्मानियों की वजह से इस लैंड रूट से व्यापार बंद हो गया. यानि उस्मानियों के द्वारा लगाए जाने वाले भयंकर टैक्स ने लैंड रूट से होने वाले व्यापार को बंद करने के लिए मजबूर किया.

दूसरी तरफ़ यूरोप के वेनिस और जेनेवा भी एशिया के साथ ज़मीनी रूट से व्यापार कर रहे थे. जिससे कई यूरोपीय देशों ख़ास तौर पर स्पेन और पुर्तगाल को दिक्कत थी. इनके पास अब एक ही रास्ता बचा था – 

समन्दर का. 

पुर्तगाल और स्पेन के शासक समुद्री रास्तों से दुनिया के दूसरे हिस्सों को खोजने के लिए अपने नाविक भेजा करते थे. खुशी-खुशी इन लंबी यात्राओं की फंडिंग की जाती थी. स्पेन से एक नाविक चला- नाम था कोलंबस, इरादा भारत पहुंचने का था लेकिन पहुंच गया अमेरिका. और अमेरिका की खोज हो गई. कोलंबस को आखिर तक यही लगता रहा कि उसने भारत की खोज कर ली है.

इसके बाद 1487 में पुर्तगाल से एक समुद्री यात्री भारत के लिए निकला. नाम- बार्थो लोम्यो डियास. ये अफ्रीका के किनारे-किनारे चला और साउथ अफ्रीका के एक द्वीप तक पहुंच गया. इस द्वीप को नाम दिया गया केप ऑफ़ होप. बार्थो ने करीब आधी दूरी तय कर ली थी लेकिन भारत तक नहीं पहुंच सका. इसके बाद साल 1497 में पुर्तगाल से एक और समुद्री यात्री ने सफ़र शुरू किया, नाम था : वास्को-डि-गामा.

उस वक़्त पुर्तगाल के शासक थे- मैनुएल प्रथम. 8 जुलाई, 1497 को पुर्तगाली(Portuguese) नाविक वास्को-डि-गामा ने भारत की तरफ कूच किया. पुर्तगाल का लिस्बन शहर जैसे कोई त्यौहार मना रहा था. ये पुर्तगाल की राजधानी भी थी और बंदरगाह भी. लिस्बन के लोग लाखों की तादाद में सैनिकों और नाविकों को विदा करने के लिए समंदर किनारे पहुंच रहे थे. चार बड़े जहाज अपना सफ़र शुरू करने वाले थे. जिनमें तोप, जरुरी सामान और नक़्शे रखे गए थे. अफ्रीका के तटों का वो नक्शा भी था जिसे किंग मैनुएल के पहले पुर्तगाल के शासक रहे प्रिंस हेनरी ने तैयार कराया था. 

वास्को-डि-गामा पहले आशा अंतरीप यानी केप ऑफ़ गुड होप और फिर मेडागास्कर और अफ्रीका के बीच से होते हुए, मोजाम्बिक और फिर केन्या तक पहुंचा. 

यहां वास्को-डि-गामा की मुलाक़ात एक गुजराती व्यापारी अब्दुल मनीक से होती है. शायद ये अब्दुल मनीक ना मिलता तो वास्को डी गामा के लिए भारत पहुंचना अभी और मुश्किल होता. ये समुद्री इलाका मनीक की फिंगर टिप्स पर था, यानी अच्छे से रटा हुआ. मनीक की मदद से वास्को-डि-गामा हिन्द महासागर को पार करते हुए इंडिया में केरल के कालीकट पर पहुंचता है. करीब दस महीने के लंबे सफर में 12,000 मील की दूरी तय करने और दर्जनों साथियों को खो देने के बाद. तारीख़ थी 20 मई 1498. आज इस कालीकट को कोझीकोड कहते हैं.

इस वक़्त तक भारत से अरब के व्यापारी व्यापार किया करते थे. ये पहली बार था कि कोई यूरोपियन व्यापारी सीधे भारत आया था. जिस तट पर वास्को-डि-गामा पहुंचा था उसे मालाबार तट कहते हैं. और उस वक़्त इस पूरे इलाके यानी कालीकट का स्थानीय शासक था जमोरिन. जमोरिन दरअसल एक उपाधि थी जो इस हिंदू शासक को पुर्तगालियों ने ही दी थी. जैसे मुग़ल शासक को बादशाह कहा जाता है, हिंदू शासक को राजा या महाराजा वैसे ही पुर्तगाल में शासक को जमोरिन कहा जाता है. जमोरिन ने वास्को-डि-गामा का शानदार स्वागत किया. उसकी आव-भगत में कोई कमीं नहीं छोड़ी. वजह कि पहली बार विदेशियों से व्यापार करने का दूसरा विकल्प मिला था.

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